छंद: संतोष यादव निशंक

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मुझको दिखाई देती भारती के भाल पर,
खिंची हुई भाग्य की लकीर वंदेमातरम,
जितना ही गाऊं इसे उतना ही बढ़ जाता
बन गया द्रोपदी का चीर वंदेमातरम।
यह गोरे शाशकों की छातियों में चुभता था,
जैसे विष बुझा हुआ तीर वंदेमातरम।
जिन्हें मां की वंदना से परहेज उन्हें,
डूब मरने को चल्लू भर नीर वंदेमातरम। (१)
चार बजे भोर से ही काम मे वो लग जता,
तब जा के होते-होते शाम कर पाता है,
रिस्तेदार या की फिर गांव के पड़ोसियों से,
राह चलते ही राम-राम  कर पाता है।
किसी कर्मचारी या की अधिकारियों के,
जैसा होता हुआ कहां तामझाम कर पाता है,
पूरे परिवार संग खटे दिन रात तब,
जाके रोटियों का इंतजाम कर पाता है।। (२)
भावना भरी हो दिल में जो राजभक्ति,
वाली पन्ना धाय जैसी वो महान बन जाती है,
मातृभूमि अस्मिता लगी हो दांव पर देख,
लक्ष्मीबाई शक्ति का प्रमाण बन जाती है।
निर्भीक साहसी बनी जो कल्पना के जैसी,
अंतरिक्ष वाली वो उड़ान बन जाती है,
वाणी की उपासना लता की स्वर साधना,
तो कण्ठ से वो कोकिल समान बन जाती है।। (३)

 

-संतोष यादव निशंक, रायबरेली

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