दिव्य दृष्टि की प्राप्ति पूर्ण गुरु बिना असंभव -:- स्वामी शिव शरणानंद।

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भारी वर्षा होने पर भी हजारों की संख्या में पहुंचे भक्त

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जगतपुर (रायबरेली)। क्षेत्र के पंडित जालिपा प्रसाद सरस्वती विद्या मंदिर दिव्य ज्योति जागृति संस्थान द्वारा आयोजित श्री हरि कथा के तृतीय दिवस अनेकों भक्तों के हृदय में प्रभु प्राप्ति की जिज्ञासा तीव्र हुई व अत्यंत मधुर भक्ति रचनाओं का रसपान किया। कथा का वाचन करते हुए गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी के शिष्य एवं कथा व्यास स्वामी श्री शिव शरणानंद जी ने कहा कि जब इंसान को दिव्यदृष्टि की प्राप्ति होती है तो उसके सभी भ्रम समाप्त हो जाते हैं और गुरु कृपा द्वारा वह अपने ही घट के भीतर परमात्मा के प्रकाश का दर्शन प्राप्त कर अपने जीवन को सार्थक कर पाता है। इस संसार में समय-समय पर महापुरुष उस दिव्य दृष्टि को प्रदान करने के लिए ही आते हैं परंतु हम उनको पहचानते नहीं क्योंकि उनकी पहचान भी दिव्य दृष्टि की प्राप्ति के पश्चात ही होती है। जिस प्रकार किसी मंदिर में विराजमान प्रभु की दिव्य मूरत का दर्शन तब तक नहीं किया जा सकता जब तक मंदिर का कपाट ना खोला जाए ,इसी प्रकार से दोनों नेत्रों के बीच में एक स्थान है।

जिसे “आध्यात्मिक ह्रदय”, “हृदय अरविंद “,”दिव्य दृष्टि”, “दशम द्वार “, “पर्दे की आंख”, “Divine Eye Of Soul”, “दिव्य चक्षु “, आदि नामों से अलग-अलग ग्रंथों के भीतर इसकी चर्चा की गई है।

स्वामी जी ने आगे बताया इतिहास साक्षी है जो भी मनुष्य भक्त बनता है उसके जीवन में सर्वप्रथम पूर्ण गुरु की प्राप्ति होती है।जो उनकी दिव्य दृष्टि को खोलकर अंतः करण में स्थित परमात्मा के प्रकाश का दर्शन करवा देते हैं,और अपने अंतःकरण में परमात्मा की अनंत लीलाओं को दिव्य अनुभूतियों को अपने अंदर ध्यान के समय नित्य प्रति दर्शन कर मलिन मन को पावन कर पाते हैं।

स्वामी जी ने संत शिरोमणि सूरदास जी के विलक्षण जीवन चरित्र पर प्रकाश डालते हुए बताया कि भक्त सूरदास जी ऐसे ही महान कृष्ण भक्तों की श्रेणी में आते हैं ।जिनके जीवन में जब गुरु वल्लभाचार्य जी का आगमन होता है,तो उन्हें गुरुदेव ने ब्रह्म ज्ञान की दीक्षा के समय ही कृपा का हाथ सिर पर रखकर दिव्य नेत्र प्रदान करते हैं और परमात्मा के प्रकाश को अंतर हृदय में आलोकित कर देते हैं। यद्यपि सूरदास जी जन्मांध नेत्रहीन थे परंतु गुरु कृपा से ही उस दिव्य चक्षु की प्राप्ति करते हैं जिसके द्वारा एक भी सांसारिक नेत्रों के न होने पर भी नित्य प्रति ध्यनास्थ होकर भगवान श्री कृष्ण की अनन्य अनंत बाल लीलाओं का दर्शन करते हैं और उनका भाव पूर्वक भक्तों के समक्ष गायन करके जन्मों-जन्मों से पड़ी अपनी बंजर हृदय रूपी भूमि को प्रभु प्रेम से सूचित कर अपने संपूर्ण जीवन को कृतार्थ कर लेते हैं। एक बार की घटना है सूरदास जी मार्ग से जा रहे थे नेत्रहीन होने के कारण मार्ग में आए एक गड्ढे के अंदर गिर जाते हैं और हृदय से प्रभु को पुकारते हैं भगवान श्री कृष्ण बालक के रूप में वहां प्रकट होकर थे अपना हाथ आगे बढ़ा कर उन्हें बाहर आने के लिए कहते हैं और जैसे ही सूरदास जी बालकृष्ण के दिव्य हाथों का स्पर्श करते हैं उन्हें एहसास होता है हो ना हो यह मेरे आराध्य भगवान श्रीकृष्ण हैं। पुनः मार्ग पर आ जाने के बाद जब जब प्रभु हाथ छुड़ाकर जाने लगते हैं तब सूरदास जी छोड़कर जाने के लिए मना करते हैं लेकिन बाल रुप में आए भगवान श्रीकृष्ण उनकी बात को नामांकन उन्हें छोड़ कर चले जाते हैं उस समय भक्त सूरदास जी के हृदय से एक उद्घोष उद्घाटित होता है।

“वाह छुड़ा के जाते हो निबल जान के मोहि।
“हृदय से जब निकासी हो सबल बखान ओ तो ही।।”

स्वामी जी ने बताया कि ऐसा समस्त ग्राम ग्रंथों में प्रमाणित है कि “दिव्य दृष्टि” के द्वारा ही ईश्वर दर्शन होता है और पूर्ण सद्गुरु की कृपा से ही दिव्य दृष्टि की प्राप्ति होती है। दिव्य ज्योति जागृति संस्थान वर्तमान समय में गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी की महती कृपा से आज समाज के अनेकों जिज्ञासु भक्तो को वही दिव्य दृष्टि प्रदान कर रहा है जिसके द्वारा परमात्मा के प्रकाश का “ब्रह्म ज्ञान “की दीक्षा के समय अपने अंतः करण में साक्षात्कार अथवा दर्शन किया जा सकता है। प्रभु दर्शन की अभिलाषा रखने वाले समस्त जिज्ञासु भक्तो के लिए दिव्य ज्योति जागृति संस्थान उनका आवाहन करता है। संयोजक मंडल में पुष्पेन्द्र सिंह ,दिनेश मौर्य ,धीरज सिंह, रमेश मौर्य, सोहन लाल यादव ,नीरज सिंह एवं स्वामी श्री विश्वनाथ आनंद की गरिमामय उपस्थिति रही।

मनीष श्रीवास्तव रिपोर्ट

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