हॉकी की चैंपियंस ट्रॉफी में भारतीय टीम को भले ही सोने की जगह चांदी का तमगा मिला हो, पर जिस तरह का खेल उसने दिखाया, वह भारतीय हॉकी के लिए उम्मीद बंधानेवाला है। उसने इस टूर्नामेंट के अपने पांच मैचों में दो जीत, दो ड्रॉ और एक हार के साथ आठ अंक लेकर खिताबी मुकाबले में जगह बनाई। इससे पहले 2016 की चैंपियंस ट्रॉफी में भारतीय टीम सात अंक लेकर पहली बार फाइनल में पहुंची थी, तब भी उसका मुकाबला ऑस्ट्रेलिया से ही हुआ था। उस वक्त भी भारत की टीम ने तकरीबन ऐसा ही खेल दिखाया था और इस बार की तरह पिछली बार भी ऑस्ट्रेलिया पेनाल्टी शूटआउट में 3-1 से ही जीता था। अलबत्ता इस बार फर्क एक ही था कि बतौर कोच टीम की कमान किसी विदेशी विशेषज्ञ के बजाय हरेंद्र सिंह के हाथों में थी, जो जूनियर और महिला हॉकी में अपनी कोचिंग का जादू पहले ही दिखा चुके हैं। उनकी कोचिंग में भारत 2016 में पहली बार जूनियर हॉकी वर्ल्ड कप जीता, जबकि महिला हॉकी टीम ने पिछले साल चीन से एशिया कप झटका था। तीन बार चैंपियंस ट्रॉफी जीत चुकी पाकिस्तानी टीम उनके चक्रव्यूह में उलझ गई जबकि, आठ बार चैंपियंस ट्रॉफी जीत चुकी नीदरलैंड्स की टीम भी पानी भरती नजर आई। भारतीय टीम ने एक बार फिर हॉकी के उस भारतीय स्वर्ण युग की यादें ताजा करा दीं, जो अब सुदूर अतीत की ही बात लगता है। घास के मैदान से निकलकर ऐस्ट्रो टर्फ पर पहुंचने के बाद से ही हॉकी का खेल भारत से रूठ गया सा लगता है। पिछले कुछ सालों में हालत यह रहे कि 2008 के पेइचिंग ओलिंपिक के लिए भारतीय टीम क्वालिफाई भी नहीं कर पाई थी और 2012 के लंदन ओलिंपिक में भी उसका प्रदर्शन याद करने लायक नहीं हो पाया था। लेकिन पिछले तीन-चार सालों में टीम ने एशिया कप, चैंपियंस ट्रॉफी, वर्ल्ड हॉकी लीग और अजलान शाह कप के प्रदर्शनों में दिखा दिया है कि वह विश्व हॉकी में धीरे-धीरे अपना एक इज्जतदार मुकाम बना रही है। रही बात चैंपियंस ट्रॉफी की, तो यह इसका अंतिम आयोजन था। अगस्त-सितंबर में जकार्ता में एशियाई खेल होने हैं और फिर नवंबर-दिसंबर में भुवनेश्वर में विश्व कप टूर्नामेंट खेला जाना है। उम्मीद करें कि भारतीय टीम इन आयोजनों में अपना पुराना गौरव हासिल करने में कामयाब होगी।