अनूप भटनागर
जरूरत इस बात की है कि राज्यों में अधीनस्थ अदालतों में लंबित मुकदमों का बोझ कम करने के लिये न्यायाधीशों के रिक्त पदों पर नियुक्तियां की जायें और पर्याप्त संख्या में अदालत कक्ष और न्यायिक अधिकारियों के लिये आवास सुविधा उपलब्ध करायी जाये। वास्तव में ऐसा हो ही नहीं रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अधीनस्थ न्यायपालिका राज्यों के अधीन होती है लेकिन केन्द्र सरकार भी केन्द्रीय प्रायोजित योजना के अंतर्गत बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिये धन मुहैया कराती है। लेकिन अब हुआ यह है कि केन्द्र सरकार ने इस संरचनात्मक विकास के लिये आवंटित राशि में भारी कटौती कर दी है। इस समय देश में जिला और अधीनस्थ न्यायालयों के लिये 17,817 न्यायालय कक्ष और 13790 आवासीय इकाइयां उपलब्ध हैं। इस समय 3165 न्यायालय कक्ष और 1778 आवासीय इकाइयां निर्माणाधीन हैं। पर्याप्त संख्या में न्यायालय कक्ष और आवासीय इकाइयों की अनुपलब्धता को ध्यान में रखते हुए ही सरकार ने अधीनस्थ न्यायपालिका में प्रति वर्ष एक हजार न्यायालय कक्ष और 600 आवासीय इकाइयों के निर्माण का लक्ष्य निर्धारित किया था। इसके लिये 2017-18 से 2019-20 की तीन साल की अवधि के लिये 3320 करोड़ रुपए के खर्च को मंजूरी दी थी। इन तीन सालों में यानी 2017-18 के लिये एक हजार करोड़ रुपए, 2018-19 के लिये 1110 करोड़ रुपए और 2019-20 के लिये 1210 करोड़ रुपए मंजूर हुए थे। लेकिन सरकार न्यायालय कक्ष और आवासीय इकाइयों के निर्माण के लिये निर्धारित राशि में लगातार कटौती कर रही है। सरकार ने 2017-18 में इस योजना की मद में करीब 370 करोड़ रुपए कम किये थे लेकिन इस बार तो 2018-19 के लिये इसमें 480.80 करोड़ रुपए कम कर दिये। इतनी अधिक कटौती सरकार की मंशा पर सवाल उठाती है। न्यायालयों की संरचनाओं की मद में इतनी ज्यादा कटौती करने के बाद निश्चित है कि इस योजना के लक्ष्यों को प्राप्त करना मुश्किल हो जायेगा। इसका नतीजा यह होगा कि इसका न्याय प्रदान करने की व्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। विधि एवं न्याय मंत्रालय से संबंधित संसदीय समिति ने संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में इन तथ्यों को उजागर करते हुए सरकार से इस योजना के लिये आवंटित राशि में बढ़ोतरी करने की सिफारिश की है ताकि इसके अंतर्गत हो रहे कार्य प्रभावित नहीं हों। अब यह तो स्पष्ट नहीं है कि सरकार ने नये न्यायालय कक्षों और आवासीय इकाइयों के निर्माण की योजना में कितनी राशि बढ़ाई है लेकिन यह सही है कि निचली अदालतों में दो करोड़ से भी अधिक मुकदमों के लंबित होने और पर्याप्त संख्या में अदालत कक्षों तथा न्यायिक अधिकारी उपलब्ध नहीं होने की वजह से न्याय प्रदान करने की व्यवस्था प्रभावित हो रही है। इस मामले में केन्द्र सरकार के साथ ही राज्य सरकारों को भी गंभीरता से ध्यान देना होगा। प्रशासन को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि अपने विवादों के सिलसिले में अदालत आने वाले नागरिकों के बैठने के लिये पर्याप्त सुविधा हो। संसदीय समिति की सिफारिशों के करीब तीन महीने बाद, केन्द्र सरकार और कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने तो यही दावा किया है कि पिछले चार साल में न्यायिक सुधारों की दिशा में काफी काम हुआ है। बुनियादी सुविधाओं की कमी और न्यायाधीशों के रिक्त पदों के सवाल उठने पर आंकड़ों का सहारा लेते हुए वह कहते हैं कि किसी को भी सरकार की नीयत पर संदेह नहीं करना चाहिए। कानून मंत्री का दावा करते हैं कि पिछले चार सालों में अधीनस्थ न्यायपालिका में 1,1613 न्यायाधीशों की नियुक्ति की गयी है और इस समय इनकी कार्यक्षमता 16,728 हो चुकी है। इसके बावजूद अभी भी अधीनस्थ न्यायपालिका में न्यायाधीशों के स्वीकृत 22,474 पदों में से 5,746 पद रिक्त हैं। यह भी सही है कि सरकार ने उच्च न्यायालयों में 331 न्यायाधीशों की नियुक्ति की। फिर भी उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के कुल स्वीकृत 1079 पदों में से आज भी अनेक पद रिक्त हैं। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि त्वरित अदालतों की संख्या 281 से बढ़कर 727 हो गयी है। लेकिन इसका श्रेय तो शीर्ष अदालत को जाता है, जिसने सरकार को त्वरित अदालतें गठित करने के लिये बाध्य किया। यह शीर्ष अदालत का ही निर्देश था, जिसकी वजह से सरकार को सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों की तेजी से सुनवाई पूरी करने के लिये 12 त्वरित अदालतें गठित करनी पड़ीं। उम्मीद की जानी चाहिए केन्द्र सरकार अधीनस्थ न्यायपालिका में न्यायालय कक्षों और न्यायिक अधिकारियों के आवास की कमी को ध्यान में रखते हुए इनके निर्माण हेतु समुचित धनराशि आवंटित करेगी ताकि लंबित मुकदमों के निपटारे की प्रक्रिया को गति प्रदान करना संभव हो।