राजीव गांधी: तुमसा नहीं देखा हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा

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नेहरू ने जिस आत्मनिर्भर एवं समाजवादी भारत की परिकल्पना की थी राजीव गांधी ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में उसे मूर्त रूप प्रदान करने की कोशिश की। आज जिस डिजिटल इंडिया की चर्चा है उसकी संकल्पना उन्होंने ही तैयार की थी, इसीलिए उन्हें डिजिटल इंडिया का आर्किटेक्ट एवं सूचना तकनीक और दूर संचार क्रांति का जनक भी कहा जाता है।युवाओं के सशक्तिकरण एवं सियासत तथा राष्ट्र निर्माण में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए मताधिकार की उम्र 21 से हटाकर 18 करने का श्रेय भी राजीव गांधी के हिस्से में ही जाता है। उन्होनें कंप्यूटर क्रांति की शुरुआत कर उसकी पहुंच आमजन तक कर दी जिसका लाभ आज कोविड 19 संकट काल में पूरा देश उठा रहा है। विरोधी पार्टियों के कम्प्यूटरीकरण के विरोध एवं भारत बंद के आवाहन के बावजूद 1988 में दिल्ली में पहला ए टी एम राजीव गांधी ने ही उद्घाटित किया था। आज बिना इसके सामान्य जीवन की कल्पना ही बेमानी है।
ये वही राजीव गांधी है जिन्होंने पंचायती राज व्यवस्था का पूरा प्रस्ताव नए तरीके से इस मकसद के लिए तैयार कराया जिससे सत्ता का विकेंद्रीकरण हो गरीब, मजलूम व वंचित समुदाय को अधिकतम लाभ मिल सके। इस वैज्ञानिक शिक्षा और सोंच की बात हम करते है उसे विस्तारित और आधुनिकीकृत करने की योजना 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति द्वारा राजीव गांधी ने ही की। राजीव गांधी वो सीढ़ी है जिस पर चढ़कर भारत न केवल दूरदराज गांव तक पहुंचा बल्कि अति आधुनिक भी हुआ।आज उनके इन्ही कामों का श्रेय लेने की होड़ सरकारों में देखी जा सकती है।
राजीव गांधी बेहतरीन प्रधानमंत्री के साथ साथ बेहतर इंसान और आकर्षक व्यक्तित्व के भी धनी और सामाजिक सद्भावना तथा सहअस्तित्व के सिद्धांत के हामी थे। जो भी उनसे मिलता था उनके मृदुल व्यवहार एवं सहजता का मुरीद हुए बिना नही रहता था। इसी लिये सरकार ने उनकी याद में सद्भावना पखवाड़ा मनाना तय किया था पर आजकल इस पखवाड़े को भी ग्रहण लग गया है।
बात राजीव गांधी के प्रधानमंत्री कार्यकाल के अंतिम दिनों की है। सुल्तानपुर का निवासी होने के कारण उनसे मिलना बड़ा आसान था और कई बार तो उनका सहृदय और निर्छल होना भी मुलाकात में बहुत सहायक साबित होता था। ऐसे ही एक बार सुल्तानपुर डाक बंगले में उनसे मिलने का अवसर प्राप्त हुआ और बातों बातों में जब उन्हें पता चला कि मैं इतिहास का विद्यार्थी हूँ और मेरी रुचि और अध्ययन आजादी के आंदोलन में है तो बरबस उन्होंने कहा कि क्यों न 1857 की क्रांति में उत्तर प्रदेश की जनता की भागीदारी का पुनर्मूल्यांकन किया जाए। उन्होंने ये भी कहा कि सुल्तानपुर का गाँव गाँव 1857 लोगों के संस्मरणो में भरा पड़ा है। मैंने कई बार अपने मंचो पर इसका बखान सुना है और कुछ जानने की कोशिश भी की है बहुत बार सोंचा की इस पर कुछ करना चाहिए लेकिन व्यस्तता के कारण ये मेरी प्राथमिकता में न आ सका, आपसे मुलाकात से फिर मेरी ये ख्वाहिश जाग उठी। आप कोई योजना बनाएं और विद्वानों से बात करें, किसी तरह की कमी आड़े हाथों नही आएगी। मैने कहा कि एक विनम्र सुझाव देना चाहता हूँ कि 1857 की क्रांति में मुसलमानों के रोल पर बातें करें तो कैसा रहेगा क्योंकि आज़ादी की लड़ाई में उनकी भागीदारी पर इतिहासकारों ने बहुत ही कम फोकस किया है।
राजीव जी का बड़ा ही वैज्ञानिक और सधा हुआ जवाब था कि डॉक्टर साहब देश की कोई भी ऐसी विधा नही है जो मुसलमानों के योगदान के बगैर मुकम्मल हो सके और आज़ादी की लड़ाई तो बिल्कुल नही। आधुनिक भारत की जो परिकल्पना है वो उनके बगैर अधूरी है। परन्तु हमें इतिहास को समग्रता में देखना होगा कि कैसे धर्म, जाति और भाषा की विभिन्नता के बावजूद सब लोग संकट का सामना एक साथ मिलकर करते है और यही साझी विरासत हमारी ताकत और दुनिया में भारत की पहचान है। इसे बचाये रखने का मतलब भारतीयता को बचाये रखना है। ये थी उनकी भारतीय समाज और इतिहास की समझ। मैं मंत्रमुग्ध होकर उनकी बात सुनता रहा और अब मेरे पास जवाब देने के लिए शब्द ही नही बचे थे।
फिर राजीव जी के एक प्रस्ताव से में चौक पड़ा कि इसे जिलेवार लिखा जाए और सुल्तानपुर का इतिहास लेखन आपके हवाले ।हमने इसपर काम करना शुरू किया पर समय की गति कौन जानता है, राजीव जी नही रहे।21 मई 1991को उनकी हत्या हो गयी। मैं भी अपनी रोजी रोटी कमाने की व्यस्तता में इतना खो गया की यह काम अधूरा रह गया। इधर कुछ दिनों से हमने इस काम की नए सिरे से रूपरेखा बनानी शुरू की है क्योंकि मुझे लगता है कि राजीव गांधी की पैनी निगाहों ने ये भांप लिया था कि आने वाला वक़्त तथ्यपरक इतिहास लेखन के लिए संकट भरा होगा। उनकी ये सोंच आज सच साबित हो रही है और ऐतिहासिक तथ्यों को नकारने की प्रवित्ति तेजी से बढ़ रही है।उनकी सोंच को अमल के लाना एक कर्ज़ है मुझ पर राजीव जी का, जिसे उतारने के लिए मैं आजकल काम कर रहा हूँ।

लेखक- डॉ मोहम्मद आरिफ
इतिहासकार और सामाजिक कार्यकर्ता

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