अड़तीस साल की उम्र का तजुर्बा बहुत बड़ा नहीं तो बहुत छोटा भी नहीं कहा जा सकता।इसी तजुर्बे के दम पर मैं ये कह सकती हूँ कि एक से एक कर्मठ महिलाएँ मैंने अपने जीवन में देखी हैं ,पर उसके जैसी नहीं…. न मैं ,न मेरे सगे संबंधियों में ,न मेरी जान पहचान में,न गांव में ,न शहर में,न कस्बे में…कहीं भी नहीं,कोई भी नहीं…एक भी नहीं।न उससे पहले न बाद में……।
वो गुड्डी थी।
गुड्डी चलता फिरता ऊर्जा पुंज थी।उसके अंग जैसे मांस मिट्टी के नहीं ,फौलाद के बने हों,जिनमें खून में घुलकर अनवरत बिजली का करंट दौड़ रहा हो।थकना किसे कहते हैं,वो जानती ही नहीं थी।उसे देखकर बहुत बार खुद पर शर्म आती थी।कई बार लगता कि कोई दैवीय ताकत उसके भीतर हमेशा जीवित अवस्था में रहती है जो उसे दिन रात जागृत रखती है।साधारण मानव में इतनी ऊर्जा मुमकिन नहीं।
गुड्डी स्कूल में mdm के लिए कुक की पोस्ट पर काम करती थी,पर टीचर्स के लिए पीने के पानी का घड़ा लाना, दफ्तर में पोंछा लगाना (हालांकि इस काम के लिए अलग से वर्कर था जो हर सुबह रूटीन से पूरे स्कूल की सफाई करता था फिर भी जब तक दफ्तर के सारे साजो सामान को वो अपने हाथों से चमका नहीं देती , तब तक उसे चैन नहीं पड़ता था ), चाय बनाना, बर्तन साफ करना, उन्हें करीने से लगाना….ऐसे अनगिनत दैनिक काम वो बड़ी मुस्तैदी और खुशी के साथ करती थी। इनमें से किसी भी काम के लिए हम में से किसी भी टीचर को उसे कभी कहने की जरूरत पड़ी हो, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता।दूसरी mdm वर्कर्स से कभी कोई प्रतिस्पर्धा नहीं, बस जो भी काम सामने दिखा, वो पलक झपकते ही पूरा।
अगर ये सब जानकर आपके मन में एक चापलूस इंसान की छवि उभर रही हो तो जान लीजिए, चापलूसी उसके आस पास भी नहीं थी। उसे अपनी तारीफ सुनना बिल्कुल भी पसन्द नहीं था। न ही उसके पास इस फालतू काम के लिए फुर्सत थी। इन सब के बदले हम अपनी अपनी मर्ज़ी से जो कुछ कम ज्यादा उसे देते ,उसे भी वो ना नुकुर के बाद बड़ी मुश्किल से रखती ।
शादी के कुछ साल बाद ही गुड्डी के पति का देहांत हो गया था।दो छोटे छोटे लड़के थे गोद में,एक चार पांच साल का,दूसरा दो अढाई साल का।पति की छमाही वाले दिन कुनबे के लोगों ने तरस खाकर उसे देवर के ‘पल्ले’ लगा दिया,पर देवरानी को ये मंजूर नहीं था।देवरानी अपने पति को लेकर अपने पीहर में रहने लगी।सास,समाज और कुनबे के लोगों को जब ये नागवार गुजरा तो खींचतान और लड़ाई झगड़े के बीच देवर भी भगवान को प्यारा हुआ।देवरानी ने अपने वैधव्य का ठीकरा भी पूरे जोर शोर से गुड्डी के सर पर फोड़ा।पर गुड्डी को सब सहज स्वीकार्य था …जायज,नाजायज…सब कुछ।किसी से कोई शिकायत नहीं ….न खुद से,न समाज से,न दुनिया से,न तकदीर से….किसी से भी नहीं।
सब कुछ सहते हुए जैसे तैसे अपने दोनों बच्चों को पाल रही थी कि अचानक किसी अनजान बीमारी ने आन घेरा।मुँह के भीतर बड़े बड़े फफोले हो गए,होठों पर रेशा बहाते भयानक दाने उभर आए। खाना पीना सब छूट गया।कई दिनों तक बिना परवाह किए वो घर का ,खेत का,पशुओं का ,स्कूल का ….. सब काम पहले की तरह ही करती रही।पर बीमारी थी कि बढ़ती ही जा रही थी।काया कंकाल होने लगी थी।आखिर हिम्मत जवाब दे गई।सास के साथ डॉक्टर को दिखाने शहर गई।डॉक्टर ने खूब सारे टेस्ट किये ।रिपोर्ट आई।सुनने में आया कि सास ने गुड्डी को खाट से नीचे पटक दिया। बड़ा ही अजीब लगा।हम सब उससे मिलने गए।शरीर सूख कर कांटा हो गया था।मांस का नामोनिशान नहीं था।कोई चाहे तो बड़ी ही आसानी से एक एक हड्डी गिन सकता था।
कुछ दिन बाद गुड्डी चल बसी।मौत के कुछ दिन बाद पता चला कि वो किसी जानलेवा बीमारी की गिरफ्त में थी।लोग कह रहे थे कि उसी बीमारी के एक पॉजिटिव आदमी के साथ वो ‘बोल पड़ी’ थी।
लोग चाहे उसके बारे में जो भी कहें,जो भी सोचें, उसकी कर्मभक्ति के प्रति मेरी श्रद्धा में जरा भी फर्क नहीं पड़ा, और न कभी पड़ेगा।किसी मंदिर की कोई उजली मूरत मेरे मन में उसके स्थान को प्रतिस्थापित नहीं कर सकती।उसके निर्मल चेहरे और दीप्त व्यक्तित्व की चमक के सामने कोई संगमरमर की मूरत पल भर भी नहीं टिक सकती।।
भाड़ में जाए वो समाज और चूल्हे में जाएं उसके कायदे कानून ,जो सदियों से गुड्डी जैसी कितनी ही विधवाओं से जीते जी जीने का अधिकार छीनते रहे हैं…….संस्कृति के नाम की बेड़ियां डालकर उनका दम घोंटते रहे हैं….. उनके हिस्से की जरा सी खुली हवा को अपनी निर्मम मुट्ठी में जकड़ते रहे हैं।।।।
रोमी….की कलम से