रात डायरी के कुछ पन्ने पलटे थे,
घर का कोना कोना महका महका है।
वो सूखा गुलाब था या मय का प्याला,
गजब ख़ुमारी है मन बहका बहका है।।
गर्मी की छट्टी के दिन आये ही थे,
अलख सबेरे बिजली सी कौंधी छत पर।
घुली हवा में उसकी सौंधी बोली ज्यों,
खुली केवड़े की शीशी औंधी छत पर।।
मैना के हाजिरी लगाने के ढंग पे,
मन तोते सा अब भी चहका-चहका है।।
खेतों की पगडण्डी पर पीछे-पीछे,
बेमतलब, बेमकसद कितनी बार गये।
अजब खेल था खेल खेल में लड़े नयन,
दिल बेचारे जाने कैसे हार गये॥
हाथों में ही मुरझा गये गुलाब सभी,
बिन बरसे लौटे बादल तन दहका है।।
पूरे ग्यारह मास तपस्या के तप से,
हर गर्मी उसका नानी के घर आना।
और जेठ भर भर-भर नयन देखना भर,
विदा समय बरबस आँखों का भर आना॥
पलकों की सीपी से बाहर आ न सका,
प्यार का वो मोती यादों में लहका है।।
मो. नं.-9412780006