निरंकुश होती बर्बरता

268
भीड़ द्वारा पीट-पीटकर मार डालने की वहशियाना घटनाओं का भूगोल चिंताजनक रूप से फैलता जा रहा है। रविवार को महाराष्ट्र के धुले जिले में पांच लोगों को बच्चा चोर गिरोह का सदस्य होने के संदेह में मार डाला गया। गुरुवार को त्रिपुरा में और पिछले महीने असम में भी ठीक इसी संदेह में तीन-तीन लोगों को भीड़ ने इसी तरह पीट-पीट कर मार डाला। पिछले हफ्ते गुजरात में 40 साल की एक महिला भी बच्चा चोरी की ही अफवाह पर मार डाली गई। देश के अलग-अलग हिस्सों से लगातार अजनबियों के खिलाफ भीड़ की हिंसा से जुड़ी खबरें आ रही हैं। कहीं बच्चा चोर कहकर तो कहीं जानवर चोर बताकर बेकसूर लोग मारे जा रहे हैं।
पिछले साल देश के अलग-अलग हिस्सों में गोरक्षा के नाम पर भीड़ द्वारा हत्या का सिलसिला चल रहा था, जो छिटपुट आज भी जारी है। लेकिन आठ-दस महीने के अंतराल के बाद रक्तपात की यह नई लहर आई है। इन घटनाओं का एक निश्चित पैटर्न भी है। हर मामले में हत्या से पहले वॉट्सऐप के जरिए ऐसी अफवाह फैलाई जाती है। अफवाहें पहले भी फैलती रही हैं। इनसे लोग प्रभावित भी होते रहे हैं। ऐसे में वे ज्यादा चौकस हो जाएं, गांव-मोहल्ले में पहरा देने लगें, यह स्वाभाविक है। लेकिन पकड़े गए लोगों को मौके पर ही पीट-पीटकर मार डाला जाए, यह स्वाभाविक नहीं है। पुलिस की जरूर अपनी सीमा है। हर मामले में पुलिस तुरंत मौके पर पहुंच जाए, यह संभव नहीं है। लेकिन कानून हाथ में लेनेवालों को पुलिस पकड़ लेगी और उनकी जिंदगी का एक हिस्सा थाना, कचहरी और जेल के हवाले हो जाएगा, यह बात लोगों के दिलो-दिमाग से गायब कैसे हो जाती है? संदिग्धों को पुलिस के हवाले करने की बात उन्हें क्यों याद नहीं रहती?
क्या कथित भीड़ में शामिल लोगों को अब किसी न किसी वजह से यह भरोसा रहने लगा है कि पुलिस उनके खिलाफ नहीं जाएगी? यह इस मामले का एक अहम पहलू है, लेकिन इसके कुछ और ज्यादा जटिल पहलू भी हैं और वे कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। जैसे, प्राय: ऐसी हर घटना का विडियो बनाया जाता है और उसे सोशल मीडिया पर प्रसारित भी किया जाता है। यानी मामला सिर्फ यह नहीं है कि अफवाहों से परेशान लोग गुस्से में किसी की जान लेने पर उतारू हो जा रहे हैं। बल्कि उनमें कुछेक ऐसे लोग भी हैं, जो इस कृत्य को अच्छी बात की तरह ग्रहण करते हैं और इसका इस्तेमाल अपनी शान बढ़ाने में करना चाहते हैं। यह एक गंभीर सामाजिक मनोरोग की स्थिति है, जिसका निदान तो दूर, जिसके खतरों को भी हम ठीक से नहीं समझ पा रहे हैं। इसे जल्दी रोका नहीं गया तो बच्चों, स्त्रियों, बुजुर्गों और कमजोर मनोदशावाले लोगों का घर से निकलना मुश्किल हो जाएगा।

Previous articleचैंपियन जैसा खेले
Next articleआपातकाल के सबक भी सीखिए