नहीं रहें गरीबों के मसीहा अखिलेश सिंह, लोग क्या भगवान भी नहीं रोक सके अपने आँसू

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पंचतत्व में विलीन हो गया जन नायक

पांच बार सदर विधान सभा का किया नेतृत्व ।।

  • अन्तिम दर्षन को उमड़ा जन समुदाय, क्षितिज भी रो पड़ा
  • जनप्रिय नेता के लिए हर किसी की नम हुई आंखें हर कोई रह गया अवाक
  • डलमऊ गंगा तट पर अंतेष्ठि में जुटा हुजूम, नम आंखों से दी विदाई

रायबरेली। गरीबों के लिए मसीहा, राजनीतिक पार्टियों के लिए राजनीतिज्ञ जनपद के जन नायक सदर के पूर्व विधायक अखिलेष कुमार सिंह के निधन पर क्षितिज भी रो पड़ा। लम्बी बिमारी के बाद पूर्व विधायक ने पीजीआई लखनऊ में अन्तिम सांस ली। उनके निधन से जनपद का एक सितारा बुझ गया। निधन की सूचना मिलते ही जो जहां था वह वहीं से पांच बार विधायक रहे श्री सिंह के पार्थिव शरीर के दर्षन के लिए उनके पैतृक आवास लालूपुर चल पड़ा। आवास से लेकर अन्तिम संस्कार तक कई हजार लोगों ने उन्हें विदाई दी। अन्तिम संस्कार गंगा तट पर किया गया। जिसमें प्रदेष के कबीना मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ ही प्रदेष के अन्य जनपदों के कई नेता शामिल हुए।

हाल ही में सिंगापुर से चेकअप कराकर लौटे पूर्व विधायक की तबियत सोमवार की रात अचानक बिगड़ी। जिसके बाद उन्हें लखनऊ स्थित पीजीआई में भर्ती कराया गया। जहां मंगलवार की भोर उन्होंने अन्तिम सांस ली। उनके निधन की सूचना जैसे ही लोगों को मिली वैसे ही लोग उनके गांव स्थित आवास पहुंचने लगे। उन्हें भले ही माफिया कहा जाता रहा हो। लेकिन आज गरीबों की आंखों से निकले आसू साफ कह रहे थे कि वह सिर्फ जन नायक और गरीबों के मसीहा थे। अन्तिम संस्कार में उमड़े जन सैलाब को देखकर साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि सदर विधायक अखिलेष सिंह वास्तव में एक कुषल जन नेता थो। हर कोई जनप्रिय नेता की एक झलक पाने को बेताब दिखा। यहां तक की उनकी याद में हर किसी की आंखों में आंसू झलक आये।

कभी नहीं मानी हार
सदर विधायक अखिलेष सिंह ने कभी हार नही मानी। चाहे टकराहट किसी व्यक्ति से हो य सरकार से। मायावती सरकार में उन्होंने सरकार से लोहा लिया, लेकिन झुके नही। गरीबों के लिए हमेषा दरवाजा खुला रखने वाले पूर्व विधायक ने किसी बाहरी व्यक्ति को जनपद में किसी का उत्पीड़न करने के लिए प्रवेष नही करने दिया। यही कारण है कि जनपद के व्यापारी से लेकर हर वर्ग के लोग भले ही उनका विरोध करते रहे हो। लेकिन चुनाव के दौरान य फिर उन पर कोई समस्या आने पर वह उनके साथ खड़े नज़र आते थे। यही कारण था कि राजनैतिक पार्टियां भी श्री सिंह का लोहा मानती थी।

निर्दल के रूप में भी जीते चुनाव
राजनीति के पहले पायदान में वह कांग्रेस से विधायक बने। लेकिन उसके बाद निर्दल के रूप में लगातार विपक्षी पार्टीयों के प्रत्याषियों को मात देते रहे। यहां तक की नेहरू खानदान भी अखिलेष सिंह के आगे नतमस्तक रहा। निर्दल के रूप में भी सभी राजनैतिक पार्टीयां उनके सामने नतमस्तक रही और हर किसी को मुह की खानी पड़ी। 1993 में वह पहली बार विधायक बने। फिर यह सिलसिला पांच बार तक चलता रहा। श्री सिंह के सामने कोई भी प्रत्याषी अपनी जमानत नही बचा पाया। उसका कारण रहा कि हर चौखट पर सदर विधायक साल के बारह महीने दस्तक देते थे। लोगों के सुख-दुख में बराबर के भागीदार रहते थे।

दूसरे की थाली का भी रखते थे ध्यान
पूर्व विधायक श्री सिंह की लोकप्रियता ऐसे ही नही थी। जेल में रहने के दौरान भी वह गरीबों के लिए हमेषा चिंतित रहते थे। यही कारण था कि ईद, बकरीद, होली, दीपावली में वह गरीबों की थाली में व्यंजन परोसने का प्रयास करते थे। वह हमेषा त्योहारों पर तो ख़ासतौर पर गरीबों को कुछ न कुछ उपहार स्वरूप देते रहे है। उनकी लोकप्रियता को छीनने का प्रयास भले ही कई बार किया गया हो, लेकिन उनके किये कामों व गरीबों की पीड़ा को दूर करने के प्रयासों ने उन्हें हमेषा उनसे जोड़े रखा।

राजनीति से ज्यादा जनता के लिए चिंतित रहते थे अखिलेष
स्वर्गीय पूर्व सदर विधायक अखिलेष सिंह राजनीति से ज्यादा जनता के लिए चिंतित रहते थे। किसी की बिमारी हो, गरीब बेटियों की शादी हो, आगजनी हो तत्काल सरकारी मदद से पहले उनके हाथ उन परिवारों तक पहुंच जाते थे। सदर विधानसभा ही नही जनपद के हर कोने से गरीब वंचित लोग उनकी चौखट पर पहुंचते थे, तो उन्हे मायूस नही होना पड़ता था। वे हर सम्भव उनकी मदद करते थे। इसी लिए लोग उन्हें गरीबों का मसीहा कहते थे।

कांग्रेस के गढ़ में कभी नहीं डिगे अखिलेश सिंह
आजादी के बाद रायबरेली कांग्रेस का गढ़ माना जाता रहा है। पिता धुन्नी सिंह जनपद के अमावां क्षेत्र से ब्लाक प्रमुख थे। वो उस समय के तेज तर्रार लोगो में शुमार थे। उनके 1988 में निधन के बाद जनसेवा में सक्रिय अखिलेश ने 1993 में पहला चुनाव लड़ा और वहीं से बतौर विधायक कांग्रेस से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। उनका विजय रथ फिर नही रुका। अखिलेश सिंह लगातार तीन बार कांग्रेस से रायबरेली के एमएलए रहे। कांग्रेस नेता की हत्या के कथित आरोप के मामले में कांग्रेस में उनका पक्ष न सुनने से नाराज होने के बाद उन्होंने 2002 में कांग्रेस छोड़ दी। कांग्रेस छोड़ते ही कांग्रेस का ग्राफ जनपद में लगतार गिरता रहा और अखिलेश मजबूती से उभरते रहे। अपनी खुद की पार्टी अखिल भारतीय कांग्रेस दल का गठन कर राजनीति में जनसेवा का नया कुंआ खोदा। लेकिन व्यस्तता के चलते 2011 में पीस पार्टी में एबीसीडी का विलय कर लिया। पीस पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बन गए। 2012 का चुनाव पीस पार्टी के बैनर से लड़े और जीते। 2014 में पीस पार्टी के अधिकतर विधायको ने इनमें आस्था जताई और इनके साथ आकर पार्टी से किनारा कर लिया। इस बीच साल 2007 और 2012 के दो चुनावों में लगातार गांधी परिवार ने अपनी हार को प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया। दिल्ली से सीधे रायबरेली की सदर सीट पर नजर गड़ाई गई। सोनिया गांधी व प्रियंका ने उन्हें हराने की खातिर घूम घूमकर वोट मांगे। अखिलेश सिंह की लोकप्रियता और उनके न्यायप्रिय तेवर से जनता खुश थी और रायबरेली के लिए उन्हें अपना नेता मान चुकी थी। वो रायबरेली सीट से विजयी हुए।

अखिलेष सिंह के कद का रहा जलवा
अखिलेश के कद की बात हो और 2007 का चुनाव का जिक्र न हो ये ठीक नही। दरअसल एक साल पहले साल 2006 में रायबरेली सीट पर लाभ के पद पर इस्तीफा देने के बाद लोकसभा उपचुनाव हुए थे। सोनिया गांधी लगभग 80 प्रतिशत वोट लेकर रिकॉर्ड मतों से जीतीं थीं और एक बार लगा था कि रायबरेली में केंद्र का सीधा दखल बढ़ेगा। जनता को विकास की उम्मीद जग पड़ी थी। इसका असर भी दिखा जब विधानसभा चुनाव हुए तो रायबरेली की पांच में से चार सीट कांग्रेस ले गयी पर रायबरेली सदर में अखिलेश सिंह गांधी परिवार को खुली चुनौती देते हुए फिर शान से जीत गए। रायबरेली की सांसद सोनिया गांधी मन मसोसकर रह गईं। अखिलेश सिंह के जलवे का आलम ये था कि कांग्रेसी रायबरेली सदर में अपना पोस्टर तक लगाने से डरते थे।

अनुज मौर्य रिपोर्ट

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