और जब एक पिता अपनी बेटी को घर लाने के निकल पड़े इतने लंबे सफर पर ,पढ़े जरूर ये खबर

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रायबरेली

• महामारी के प्रकोप और कानून के भय के बीच कोई ‘अपना’ अपने से कई 100 किलोमीटर दूर परदेस में फंस जाए तो वक्त काटे नहीं कटता। समझाएं कोई कितना भी। ऐसे में खुद को भी समझा पाना कठिन होता है। जिंदगी की एक ऐसी सच्चाई से हम भी मुठभेड़ में आ फंसे अपनी कमजोर इच्छाशक्ति और अनिर्णय से।

• एक प्राइवेट कंपनी में काम करने वाली बेटी गुड़गांव में और हम बाकी परिवार घर में।कोई जतन न समझ में आए और ना अमल में। ऐसे में एक दृढ़ता आई। इसके सूत्रधार बने हमारे बाद की पीढ़ी के गोलू भाई। गोलू यानी अभिषेक अवस्थी। पारिवारिक मित्र प्रमोद अवस्थी एवं भाभी श्रीमति मंजू के सुपुत्र।

• गोलू के दिल की आवाज मेरे दिल ने सुनी और तय हुआ कि बेटी को लेकर आना ही है. यह जंग आसां नहीं थी लेकिन जब कुदरत की कृपा हो तो युद्ध आसानी से जीते जाते ही हैं। यही हुआ।

• घर से निकलने में पुलिस की टोका टाकी का “डर” छह सौ किलोमीटर की यात्रा में कैसे न आता। आया। खूब आया लेकिन जब दिल मजबूत हो, मन संकल्प कर ले तो कठिन कुछ भी नहीं। छह सौ किमी दूर से बेटी को घर लाने की बात एवरेस्ट “फतह” करने से कम नहीं थी। इतनी लंबी यात्रा के लिए छोटी-बड़ी हर कोशिश के पॉजिटिव संकेत “संकल्प” के साथ ही मिलने शुरू हुए तो मिलते ही चले गए। संकल्प-संयम-सहयोग बड़ी से बड़ी जंग को आसान बना देते है। वहीं इसमें भी हुआ।

• गुड़गांव की यह यात्रा एक रोचक, दुखद-सुखद, आश्चर्यजनक, आकर्षक और सहयोग के अनुभवों का गहन मिश्रण है। जिनसे कोई औपचारिक जान-पहचान, मेल-मुलाक़ात तक नहीं, वही पतवार बने. ऐसे ज़िले में नए आए पी सी एस अधिकारी व विनय कुमार मिश्र, पत्रकार भाई सुरेंद्र राजपूत (फरीदाबाद में भास्कर के ब्यूरो हेड ), श्री भगत सिंह डागर ( ब्यूरो हेड दैनिक भास्कर पलवल ), श्री महेंद्र बघेल (होडल-पलवल के भास्कर के पत्रकार साथी ) के सहयोग को भूल पाना ही जीवन में संभव नहीं।

• हमारे श्रेष्ठ श्री प्रताप सोमवंशी ( वरिष्ठ कार्यकारी संपादक थे हिंदुस्तान नई दिल्ली) जिगरी मित्र एवं भाई सरीखे श्री विनीत मिश्र (ब्यूरो हेड मथुरा दैनिक जागरण), श्री सौरभ शुक्ला ( नेशनल ब्यूरो हिन्दुस्तान) श्री अछलेंद्र कटियार (ब्यूरो हेड गुरुग्राम हिंदुस्तान ), श्री संतोष पाठक (ब्यूरो हेड इटावा हिंदुस्तान), श्री अमित त्रिपाठी (ब्यूरो हेड उन्नाव हिंदुस्तान) एवं श्री मनोज मिस्र (हिंदुस्तान रायबरेली) के साथ हमारे बचपन के मित्र और श्री विक्रम बहादुर सिंह (उन्नाव) ने इस पतवार को तब तक फहराए रखा, जब तक मिशन पूरा नहीं हो गया।

• 1250 िकमी (आना-जाना) की 21 घंटे तक चली अनवरत यात्रा के सहयात्री भी गोलू भाई ही थे. बड़ों की बात मानने के संस्कार वाले समाज में यह एक नई परंपरा की शुरुआत मानी जानी चाहिए। छोटों की बात को बड़े अगर गंभीरता से ले तो मुश्किल से मुश्किल “मुश्किलें” हल हो जाती हैं। जीवन की यह यादगार यात्रा इस अनुभव का भी नया खजाना दे गई है।

• ऐसे गाढ़े वक्त में हम यात्रा के पहले पड़ाव आगरा में मिले उन अनाम मित्र पुलिस के भी शुक्रगुजार है, जिन्होंने आगे की यात्रा सुगम बनाने का “रास्ता” दिखाया और उन खाकी वर्दीधारी के भी जिन्होंने अपने “रौब” को दूसरे की भावनाओं के “बुलडोजर” से कुचल दिया।

संकल्प का विकल्प संकल्प
• अपने संकल्प पर डटे तो सभी रहते हैं पर दूसरे के संकल्प को बड़ा मानकर अपना संकल्प छोटा करना स्वभाव संस्कार का एक ऐसा मिश्रण होता है जो दूसरों के लिए मीठा और अपने लिए कड़वा। नवरात्र के व्रत के संकल्प को तोड़कर हमारे संकल्प में अपने को समाहित करके गोलू ने कम उम्र में बड़ी बानगी पेश की है। संकल्प का विकल्प संकल्प होता है बशर्ते वह उस संकल्प से बड़ा हो, समाज से जुड़ा हो या दूसरे के भले से।

ये जंग जिताई, वह भी जिताओ..

• इस लंबी एवं उत्साह भरी यात्रा के आने जाने में मजबूरियों का जो सैलाब मजदूरों के रूप में देखा प्रभु वह कभी और किसी को ना दिखाए। क्या बच्चे, क्या जवान, क्या महिलाएं कई-कई 100 किलोमीटर पैदल चलते हुए कैसे मंजिल की तरफ बढ़े चले जा रहे हैं।मंजिल वही पुराना घर जिसको छोड़कर नई मंजिल की तलाश में महानगरों में दरबदर जीवन जीने को अभिशप्त है।पीठ पर गृहस्थी का बोझ, चेहरे पर चू चू आता पसीना, थकान की लकीर, चेहरों पर बदहवासी, पैरों में फटे जूते-चप्पल और बगल से फर्राटा भर्ती गाड़ियों को निहारती निगाहें.. महानगरों से पलायन करने वाले मजदूरों की नई पहचान के रूप में नज़र आईं। शहरों में हम सबकी शान बढ़ाने वाले इन मजदूरों को मान मिलना चाहिए। कई लोग आगे आए भी हैं। सरकारों ने भी सोचा लेकिन उनकी “मुश्किलों” से कम। अपनी मुश्किलों से ज्यादा बड़ी इन मजदूरों की मुश्किलें हैं।प्रभु ! इनकी मुश्किलों को भी आसान बना दो.. हमेशा हमेशा के लिए।दिल्ली से लेकर यहां वहां तक फैले यह नजारे निगाहों से देखे नहीं गए। मेरी जंग तो आसां बन गई। बात तो तब बने जब लाखों-करोड़ों उन जरूरतमंदों की जंग भी आसा हो जाए। उन्हें भी अपनी मंज़िल मिल जाए। अपने घर-गांव की छाँव।

सबकी बिगड़ी बनाने वाली माता रानी की जय

जाग मुसाफ़िर जाग # भाग कोरोना भाग

गौरव दादा की कलम से

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