तय ढांचे पर हो इमरान सरकार से बात

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जी. पार्थसारथी
पाकिस्तान में हुए आम चुनाव में इमरान खान ने शरीफ बंधुओं-नवाज और शाहबाज-को शिकस्त देते हुए 18 अगस्त को बतौर प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। इधर भारत में कयास लगने लगे हैं कि इमरान सरकार के साथ हमारे संबंध किस तरह के रहेंगे। भारत के प्रति इमरान का रवैया कैसा रहेगा। इस बारे में सटीक अनुमान लगाना हालांकि मुश्किल होगा लेकिन भविष्य के घटनाक्रम पर नजर डालने से किसी को भी इतना तो मालूम है कि पाकिस्तान के सामने मुंह बाए खड़ी घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियां उसकी प्रतिक्रिया का रुख तय करेंगी। इमरान खान ने ‘पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी (पीटीआई) का गठन ‘आईएसआई के पूर्व कुख्यात प्रमुख हामिद गुल के साथ मिलकर किया था। ये हामिद गुल वही हैं, जिन पर पाकिस्तान, अफगानिस्तान और यहां तक कि बोस्निया में इस्लामिक कट्टर संगठनों के साथ घनिष्ठ संबंध होने के चलते पूरी दुनिया का ध्यान गया था। इमरान खुद भी अफगान तालिबान और इस जैसे अन्य कट्टर संगठनों का समर्थन करते रहे हैं। पेशावर में बनी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी की प्रांतीय सरकार ने खुलकर मौलाना समीउल हक को धन मुहैया करवाया है जो चुनाव में उसका सहयोगी रहा है। समीउल हक दार-उल-उलूम नामक धार्मिक संस्था चलाता है। समीउल हक पूर्व में तालिबानी रहे और वर्तमान में ‘हक्कानी नेटवर्क के सरगना जलालुद्दीन हक्कानी की मेहमाननवाजी करता रहा है। इसके ‘जैश-ए-मोहम्मदÓ के सरगना मौलाना मसूद अजहर के साथ भी मधुर संबंध हैं जो भारत में संसद पर 13 दिसंबर 2001 को हुए आतंकी हमले के लिए जिम्मेवार है। पाकिस्तानी सेना के साथ इमरान खान का खास नाता एक खुला रहस्य है। नवंबर 2016 में कनाडा में बसे आईएसआई के अन्य बंदे मुल्ला ताहिर-उल-कादरी के साथ मिलकर इमरान ने नवाज शरीफ सरकार को गिराने की खातिर राजधानी इस्लामाबाद का घेराव किया था। हो सकता है प्रधानमंत्री पद पर बैठने के बाद इमरान सार्वजनिक तौर पर इन कट्टर संगठनों से कुछ दूरी बना लें परंतु उनकी पार्टी का राब्ता इन तत्वों के साथ पहले जैसा रहेगा। निश्चित तौर पर वे सेना के मनपसंद जिहादी गुट ‘लश्कर-ए-तैयबा को समर्थन देंगे। उक्त गुट भारत और अफगानिस्तान के खिलाफ काम करते हैं। इमरान की पहली चुनौती है पाकिस्तान का लगातार घटता विदेशी मुद्रा भंडार, जो फिलहाल सिर्फ 10 बिलियन डॉलर के आसपास है। दूसरी बड़ी चुनौती है कि इस संकट से उबारने में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तब तक सामने नहीं आएगा जब तक कि पाकिस्तानी सरकार चीन-पाकिस्तान-आर्थिक-गलियारा योजना के लिए चीन से कर्ज के रूप में मिले 90 बिलियन डॉलर की देनदारी चुकाने वाली पूरी प्रक्रिया जांच-परख हेतु मय कागजात और तफ्सील जमा नहीं करवा देती। अमेरिका के विदेश मंत्री पोम्पियो ने यह साफ कर दिया है कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से कोई पैसा पाकिस्तान को नहीं मिलने वाला, अगर वह उसका इस्तेमाल चीन का कर्जा चुकाने में करना चाहता है। इसके अलावा चीनी बैंक भी पाकिस्तान के ‘अंधे कुएंÓ में अपना धन फेंकने को इच्छुक दिखाई नहीं दे रहे। सऊदी अरब इमरान खान द्वारा ईरान के साथ घनिष्ठ संबंध बनाने की इच्छा पर कड़ी नजर रखेगा। असली इम्तिहान तो बर्फ पिघलने के बाद शुरू होता है। पाकिस्तान में इमरान खान की पीटीआई सरकार को हल्लाशेरी देने के लिए पर्याप्त मात्रा में ऐसे तत्व हैं जो चाहेंगे कि वह उनके हक में रहे ताकि भारत-विरोधी जिहाद और अफगानिस्तान में तालिबान सरकार की स्थापना वाले ध्येय को जारी रखा जाए। पाक की नयी सरकार में भारत का विरोध करने के लिए तीन चेहरे हैं : विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी, मानवाधिकार मंत्री शीरिन मजारी और रेलवे मंत्री शेख राशिद अहमद। चुनाव के बाद भारत को लेकर दिए गए इमरान के वक्तव्य ज्यादातर मध्यमार्गी रहे हैं लेकिन भारत को लेकर कुछ करने में सेना उनको ज्यादा छूट देने वाली नहीं है। भारत को जल्दबाजी में किसी तरह के समझौतावादी या बृहद संवाद बनाने वाले उन प्रयत्नों से बचना होगा, जिसमें आतंकवाद के मुद्दे को बहुत कम तरजीह दी जाती हो। वार्ता की नीव के लिए 1983 में बनाया गया भारत-पाकिस्तान संयुक्त आयोग रूपी ढांचा पहले ही उपलब्ध है, जिसमें कश्मीर समेत तमाम मुद्दों पर बातचीत उच्चस्तर पर किए जाने का प्रावधान है। लेकिन कोई भी गंभीर संवाद तब तक नहीं किया जाएगा जब तक कि पाकिस्तान 2004 में जनरल परवेज मुशर्रफ द्वारा प्रधानमंत्री वाजपेयी को दिए गए उस वचन की पालना ठोस रूप में करके नहीं दिखाता, जिसमें कहा गया था : ‘पाकिस्तान के नियंत्रण वाले क्षेत्र का इस्तेमाल भारत के खिलाफ आतंक फैलाने के लिए नहीं किया जा सकता। उस वक्त भी आगे की वार्ता तभी हो पाई थी जब यह पक्का प्रमाण मिल गया था कि मुशर्रफ ने अपना वायदा निभाया है। कश्मीर मामले पर ‘पर्दे के पीछे किए जाने वाला कोई संवाद घाटी में आतंकवादी कार्रवाइयों के रुकने का बाद ही शुरू करना होगा। महत्वपूर्ण यह है कि मौजूदा डीजीएमओ स्तर की वार्ता में प्रतिभागी और ऊपर वाले पद के होने चाहिए। जिसमें भारत की ओर से उपसेनाध्यक्ष या क्षेत्रीय शीर्ष कमांडर आएं और पाकिस्तान की तरफ से वह ‘चीफ ऑफ जनरल स्टाफ शामिल हो जो रावलपिंडी स्थित सेना मुख्यालय में काफी प्रभाव रखता हो। इन वार्ताओं का इस्तेमाल घुसपैठ खत्म करने और सीबीएमएस की स्थापना के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए ताकि सुस्पष्ट सीमा और नियंत्रण रेखा पर शांति और सौहार्द कायम रखा जा सके। भारत ने अपने अन्य पड़ोसी देशों जैसे कि चीन, म्यांमार के साथ इस किस्म की व्यवस्था पहले ही बना रखी है। इमरान खान दक्षेस की अगली शिखर वार्ता इस्लामाबाद में आयोजित करवाने को काफी इच्छुक हैं। हमारे लिए इस तरह की बैठक में शामिल होना कोई ज्यादा मायने नहीं रखता, यदि इससे पहले पाकिस्तान पूर्व घोषित ‘दक्षेस मुक्त व्यापार संधि के अंतर्गत तय किए गए ‘भारत-पाक मुक्त व्यापार क्षेत्र को ठोस हकीकत बनाने के अलावा अफगानिस्तान तक भारतीय निर्यात के लिए निर्बाध आवागमन का प्रावधान लागू नहीं कर दिखाता। इससे भी अधिक यह कि चीन को दक्षेस संगठन की सदस्यता देने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता।
जब कराची में भारतीय उच्चायोग स्थापित किया जा रहा था तब तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने यह निर्देश दिए थे कि जो भी पाकिस्तानी नागरिक भारत में रह रहे अपने दोस्तों-रिश्तेदारों को मिलने के वास्ते वीजा चाहता है, वे खुलकर जारी किए जाएं। इस नीति ने पिछले तीन दशकों से राजनयिक प्रक्रिया में चली आई परस्पर कटुता वाली मानसिकता को काफी हद तक खत्म करने में भूमिका निभाई थी। हम पाकिस्तान को बताएं कि हमारा उद्देश्य उन लोगों के साथ जरा भी मित्रता दिखाने नहीं है जो नफरत, आतंकवाद, हिंसा और शत्रुता को बढ़ावा देते हैं।
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