टरी से उतरती पढ़ाई की कढ़ाई

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शमीम शर्मा
पढ़ाई की मिट्टी जितनी आजकल खराब हो रही है, इतनी पहले कभी नहीं थी। हालांकि स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों की संख्या में कई गुणा इज़ाफा हुआ है पर हमारी शिक्षा प्रणाली कोई हुनर विकसित करने, नैतिकता के बीज बोने या जागरूक नागरिक बनाने में बुरी तरह फेल हो गई है। जिस तरह देश शहरी और ग्रामीण दो तबकों में बंट चुका है, उसी तरह शिक्षा के भी दो रूप हो चुके हैं। एक तो वे हैं जो बेहद मेरिटोरियस हैं और अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं, दूसरे वे हैं जिन्हें आठ-दस जमात पढऩे के बाद भी साधारण-सी अर्जी भी लिखनी नहीं आती। शिक्षा में एक भेद और हुआ है और वह है सरकारी और प्राइवेट का। रही-सही कसर कोचिंग सेंटरों ने पूरी कर दी जो बच्चों को रटन्तु तोते बनाकर चांदी कूट रहे हैं। ‘पढऩा और गुणणा एक आम कहावत हुआ करती थी, जिसका मतलब साफ है कि पढऩा और उसके अनुसार चिंतन-मनन करके व्यवहार करना। अब पढ़ाई का व्यवहार से कोई नाता नहीं रह गया है। आधे से ज़्यादा अभिभावक तो इस बात से ही परेशान हैं कि साल में हजारों रुपये फीस देते हैं और बच्चा घर आये को नमस्ते भी नहीं करता। कॉलेज अथवा विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों को प्रोफेसर अथवा वाइस-चांसलर से बात करते कोई देख ले तो शर्म के मारे गर्दन झुका ले। विद्यार्थियों के व्यवहार में बेअदबी दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। विचारणीय मुद्दा यह है कि इस पनपते दुर्गुण को किसके सिर मढ़ें। साक्षरता दर अवश्य बढ़ रही है पर शिक्षितों की संख्या में ज़बरदस्त गिरावट देखने को मिल रही है। कुछ साल पहले तक साक्षरता भले ही कम रही हो पर कोई भी अनपढ़ नहीं था। ये वे लोग थे जो माहौल पढ़ लेते हैं, निगाहें पढ़ लेते हैं, चेहरे के भाव पढ़ लेते हैं, मुस्कान के पीछे की कुटिलता पढ़ लेते हैं। हाथ की लकीरें पढ़ लेते हैं। बात के पीछे की बात और हालात पढ़ लेते हैं। अभिवादन और शालीनता की पूरी एबीसी इन्हें आती है, भले ही कखग लिखना-पढऩा न आता हो। ‘पढ़ाना शब्द का एक अर्थ कान भरना भी होता है। आज पढ़ाई के कान भरने की जरूरत है कि क्या पढ़ाया जा रहा है। शैली में कमी है या सिलेबस में या पढ़ाने वालों में। इस समय अगर ‘पढ़ाई को नहीं संभाला गया तो यह बिल्कुल ही पटरी से उतर जायेगी।

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