- सुनील मिश्र
एक छोटा-सा शब्द है खुशी, जिसको लेकर लम्बा और सम्प्रेषणीय विचार करने की गुंजाइश खूब बनती है। इसके अनेकानेक रंग हैं, उसी तरह जैसे जीवन के अनेक रंग हैं। यह एक अनुभूतिजन्य शब्द है लेकिन इसको महसूस करने के लिए, इसके आभासों के लिए हम उन अनेक आयामों में जाते हैं, उनकी कामना करते हैं, जिनके केन्द्र में रहकर हम प्रभाव सीमा तक सकारात्मक अनुभव करते हैं। हालांकि खुशी को लेकर बात करने में बहुत विस्तारों पर भी जाया जा सकता है लेकिन ऐसे क्षण और समय में जब खुशी का अनुभव करने के मायने बहुत बदल गये हों, खुशी की ठीक-ठीक परिभाषा पर विचार करने या चिन्तन करने को जी चाहता है। हमारा आसपास और कोई बड़ी बात नहीं कि हम भी अधिकतर इस बात में अनुभवी या माहिर हो गये हों कि किसी भी दूसरे को तकलीफ पहुंचाकर कैसे खुशी का अनुभव किया जाये! एक अजीब-सी आपाधापी और भयावह स्पर्धा के समय में हम सभी जी रहे हैं। यहां स्व-केंद्रित संरचना और अनुभूतियां ही हमको मान्य हैं। क्या हमें दो अलग-अलग समयों का एहसास नहीं होता कि कभी रेल में साधारण दर्जे की यात्रा करते वक्त बैठने और रेल के चल देते ही सहयात्रियों में आपस में बातचीत होने लगती थी, कहां से आ रहे हैं, कहां जा रहे हैं, इस बात पर अनुभव साझा होने लगते थे। यदि डेस्टिनेशन एक हुआ, आगे-पीछे भी हुआ तो वहां के मोहल्ले और जान-पहचान वालों, प्रसिद्ध लोगों का नाम लेकर हम एक-दूसरे से जुड़ते थे। जब खाने के समय सब अपनी-अपनी पोटली और डिब्बे खोलते थे तब यह डर कहां किसी को हुआ करता था कि कहीं खाने में कुछ मिला न हो, खिलाकर लूट न ले! स्टेशनों पर एक-दूसरे के लिए चाय भी बड़े उदार मन से ले ली जाती थी। मुझे याद है, नौ-दस साल की उम्र में मुझे मां भोपाल से रेल में बैठा देती थी कानपुर के लिए जहां नानी स्टेशन पर आकर ले जाया करती थी। तब आसपास बैठे लोगों से कह दिया करती-भैया, इसे रास्ते में कहीं उतरने मत देना। कानपुर में इसकी नानी आकर उतार लेंगी। आसपास के लोग महिलाएं-पुरुष आश्वस्त कर देते, बहनजी आप चिन्ता मत करिए, इसको कानपुर आने पर ठीक से नीचे उतार देंगे । आज तो रेलयात्री साथ में यात्रा करते हुए असाधारण मौन, स्व-एकाग्रता और अपने खूब रिजर्व होने का परिचय देते हैं। खाने-पीने की तो बात ही छोडि़ए, अब यह जोखिम कोई नहीं लेता क्योंकि प्रसाद से लेकर पेड़े तक में खिला-पिलाकर लूट लेने की सैकड़ों घटनाएं हैं। हमारा समय एक अजीब किस्म की प्रायोगिकी से भरा है। मंच के शीर्षस्थ कवि सुरेन्द्र शर्मा की एक प्रसिद्ध कविता है, जिसमें यह बात आयी है कि पहले पड़ोसी के दर्द से हमारी भी आह निकलती थी, अब उसकी आह पर हम खुशी मनाते हैं। बदलते समय में सकारात्मकता की कितनी जरूरत महसूस होने लगी है, इसका कारण यही है कि बहुत से लोग सोचते हैं कि सचमुच हम एक निर्मम और संवेदनहीन समाज में पूरी ही तरह बदल गये तो मनुष्यता का क्या होगा? एक बार एक लम्बा साक्षात्कार करने का अवसर मशहूर गीतकार एवं पटकथा लेखक जावेद अख्तर के साथ मिला था। हम कार से इन्दौर से खण्डवा जा रहे थे। चौराहे पर मार्गदर्शक बोर्ड पर लिखे हुए निर्देशक को जावेद साहब ने इंगित किया— देख रहे हो, जीवन यही है, रुकिए, देखिए, जाइये। सचमुच जीवन यही तो है। हम सौ साल के जीवन को बहुत मान लिया करते हैं, लगभग शायद अमरत्व का पर्याय। इसी तरह धनलोलुपता भी हममें पीढिय़ों को समृद्ध कर देने की हद तक देखी जाती है। सच तो यह है कि उतना जीवन ही नहीं है। प्रतिपल क्षणभंगुरता के क्षणों में आदमी की प्लानिंग, योजनाएं कितनी आत्मकेंद्रित होती चली गयी हैं, यह अनुभव करने की बात है। जावेद अख्तर ने बातचीत में ही कहा था— हम सब इस दुनिया में उसी तरह से हैं जैसे रेस्टोरेंट में खाना खाने जाते हैं और साफ-सुथरी मेज के सामने बैठते हैं। हमसे पहले जो आया, वह हमारे लिए एक अच्छी दुनिया छोड़कर गया है, हमारा भी फर्ज बनता है कि हमारे बाद जो आये, उसे भी एक अच्छी दुनिया जो हमारे द्वारा छोड़ी गयी हो, वो मिले। इस मर्म को भूलकर हम दुनियाभर के कुटैवों पर अपना समय, अपनी ऊर्जा गंवाया करते हैं और जब रुखसत होते हैं तो शायद हमारे योगदान का एक भी पुण्य हमारे साथ नहीं जाता। तथागत बुद्ध की जातक कथाओं में जीवन का सारतत्व समाहित है। बुद्ध को बुद्ध होने में पांच सौ सैंतालीस जन्म लेने पड़े थे। वे अलग-अलग जन्मों में विभिन्न प्राणियों के रूप में हुए थे, शेर से लेकर हाथी, वानर, मृग, गिद्ध, कौआ, हंस, भैंसा और भी बहुत कुछ। उनके हर जन्म के साथ एक कथा है जो हर मनुष्य के लिए बड़ी प्रेरणीय है। यदि बुद्ध ने सिंह के रूप में जन्म लिया तो उनके राज्य में छोटे से छोटे प्राणी को भी अभय है। वे हाथी हुए तो उन्होंने जगत को अपनी दृष्टि से देखा। लगातार जातक कथाओं को पढ़ते हुए ही मैंने गजमोक्ष नाम का एक नाटक भी लिखा था जो एक लालची आदमी और हाथी की मैत्री पर है। लालची आदमी हाथी की सदाशयता और महानता का फायदा उठाकर उसके अनमोल दांत मांग लेता है। हाथी, मनुष्य की वृत्ति जानते हुए भी उसे अपने दांत दे देता है जो उसके द्वारा निर्ममतापूर्वक काट लिया जाता है। ऐसे लालची द्वारा देवत्व से भरे मित्र के साथ छल का परिणाम प्रकृति तब देती है जब वह हाथी को ठुकराता है, परिणाम कि धरती फट जाती है और आदमी उसमें समा जाता है। भौतिकतावाद को लेकर भारतीय ज्ञान परम्परा के श्रेष्ठ से लेकर अब के वाक्पटु समय में अनेक विद्वानों और विद्वान प्रतिनिधियों ने बहुत कुछ कहा और कह रहे हैं। शान्ति, खुशी, प्रसन्नता, प्रफुल्लता ये क्षणिकाओं की भांति हैं, हमारे जीवन से अदृश्य और अनुपस्थित। बहुत सारे मार्ग खुले रखे हैं, खोले गये हैं, खोले जा रहे हैं लेकिन मूल तो यही है कि खुशी को हम एक पग आगे बढ़कर समृद्ध करें और आनंद के रूप में देखें। खुशी वास्तव में क्षणिक एहसास है, कुछ पल हैं, अनुभव के बाद हम फिर विपरीतताओं में चले जा रहे हैं, आनंद पराकाष्ठा है, निर्लिप्त अनुभव-अनुभूतियों की जिसके लिए हम अपेक्षाओं को त्याग सकें तो बड़ी बात है, न्यूनता में जीवन जीने के मंत्र को समझें तो बड़ी बात है। खुशी यह नहीं है कि कार आ गयी तो अब एसी आ जाना चाहिए, एसी आ गया तो अब हवाई जहाज आ जाना चाहिए। लंगूर बनकर कंगूरों पर कूदते फिरना खुशी नहीं है बल्कि व्यक्तित्व और विवेक के साथ, अपनी सारी शक्तियों के साथ थमे रहना खुशी है, आनंद है। अपने भीतर के दशमलव को खोलना जो बहुत सूक्ष्म है, आसानी से न दिखने वाला