आंकड़ों का मायाजाल और बढ़ती बेरोजगारी

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  • विश्वनाथ सचदेव
    देश के पहले आम चुनाव की बात तो याद नहीं, पर 1957 में हुए दूसरे आम चुनाव में एक नारा रोटी, कपड़ा और मकान का लगा करता था। कहा जाता था कि ‘रोटी-कपड़ा दे न सके जो, वह सरकार निकम्मी है।Ó निकम्मी सरकार को बदलने की आवाज़ उठाने में तत्कालीन पार्टी भारतीय जनसंघ सबसे आगे थी और मुद्दा बेरोजग़ारी का था। यह विडम्बना ही है कि तब से लेकर आज के लगभग छह दशकों में हम बेरोजग़ारी के इस भूत से अपना पीछा नहीं छुड़ा पाये। इस बीच कई सरकारें बनीं-बिगड़ीं। और अब जनसंघ के नये रूप भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। पिछली सरकारों की तरह ही इस सरकार ने भी रोटी, कपड़ा और मकान के बुनियादी मुद्दे को उठाया था और वादा किया था कि देश के करोड़ों बेरोजग़ारों की रोज़ी-रोटी की व्यवस्था करना, यानी उन्हें रोजग़ार उपलब्ध कराना सरकार की प्राथमिकता होगी। अब वर्तमान सरकार का कार्यकाल समाप्ति की ओर है और दुर्भाग्य से रोजग़ार के मोर्चे पर कोई बड़ी सफलता दिखाई नहीं दे रही। दुर्भाग्य की बात यह भी है कि बेरोजग़ारों और दिये गये रोजग़ार के कोई आधिकारिक आंकड़े भी देश के पास नहीं हैं। लेकिन, जब कुछ ऐसा घटता है, जैसा कि पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में घटा तो स्थिति की भयावहता सामने आ ही जाती है। एक समाचार अखबारों में छपा है, और समाचार चैनलों में भी दिखाया गया है कि उत्तर प्रदेश में पुलिस विभाग में चपरासी के बासठ पदों के लिए 93 हज़ार युवाओं ने अर्जी दी है। सवाल सिर्फ चपरासी बनने के इच्छुकों की संख्या का ही नहीं है, इससे बड़ा सवाल तो यह है कि आखिर वे कौन हैं जो इस नौकरी के लिए बेचैन हो रहे हैं इस पद के लिए ज़रूरी योग्यता मात्र पांचवीं कक्षा तक की पढ़ाई थी और साइकिल चलाना। लेकिन अर्जी देखने वालों में पचास हज़ार स्नातक हैं और 28 हज़ार स्नातकोत्तर योग्यता वाले हैं। यही नहीं, इनमें से 3700 अभ्यर्थी पीएच.डी की उपाधि प्राप्त हैं। अभ्यर्थियों में चार्टर्ड एकाउंटेंट और एमबीए भी हैं! ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश की पिछली सरकार के समय भी सचिवालय में चपरासी के पद के लिए कुछ ऐसा ही घमासान मचा था। तब 374 पदों के लिए चौबीस लाख आवेदन आये थे और आवेदनकर्ताओं में विश्वविद्यालयों की डिग्रियों वाले बेरोजग़ार शामिल थे। सुना है, इस स्थिति को देखते हुए तत्कालीन सरकार ने भर्ती की प्रक्रिया ही स्थगित कर दी थी। लेकिन स्थगित निर्णयों से तो देश नहीं चलेगा। और न ही रोजग़ार की इस भयावह स्थिति पर आंकड़ों का जाल बिछाकर देश के युवाओं की रोटी, कपड़ा और मकान की मांग का कोई हल निकल सकता है। कुछ अर्सा पहले जब संसद में वर्तमान सरकार के खिलाफ विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव रखा था तो प्रधानमंत्री ने अपने आकर्षक भाषण में रोजग़ार के संबंध में कुछ आंकड़े दिये थे और यह बताने की चेष्टा की थी कि सरकार न केवल इस समस्या की गंभीरता को समझ रही है, बल्कि इसके समाधान के लिए जागरूक भी है। प्रधानमंत्री द्वारा इस संदर्भ में तब दिये गये आंकड़ों पर देश में गंभीर बहस होनी चाहिए थी, पर तब सारा ध्यान विपक्ष के नेता की ‘झप्पीÓ की ओर मोड़ दिया गया। राहुल गांधी की उस झप्पी और उसके बाद उनके द्वारा किये गये आंख के इशारे ने बेरोजग़ारी के गंभीर मुद्दे को ढक-सा लिया। और देश उस बहस से वंचित रह गया जो बेरोजग़ारी के मुद्दे पर देश में होनी चाहिए थी। तब प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में दावा किया था कि वर्ष 2017 में देश में एक करोड़ रोजग़ार पैदा किये गये थे। इसके साथ ही उन्होंने सृजित रोजग़ारों के संदर्भ में कुछ मज़ेदार आंकड़े भी दिये थे। मसलन, प्रधानमंत्री ने बताया था कि उस एक वर्ष में 17 हज़ार चार्टर्ड एकाउंटेंट बने थे, जिनमें से पांच हज़ार ने अपनी नयी कंपनियां बनायीं। इन कंपनियों में यदि बीस-बीस लोग भी काम कर रहे हों तो एक लाख सी.ए. रोजग़ार वाले हो गये। इसी तरह प्रतिवर्ष डाक्टरी के पेशे में आने वाले अस्सी हज़ार डाक्टरों में से साठ प्रतिशत ही अपनी निजी प्रैक्टिस करें और पांच-पांच लोगों को अपने यहां काम दें तो लगभग ढाई लाख रोजग़ार पैदा हो जाते हैं। ऐसा ही तर्क वकीलों के बारे में दिया गया था। यही नहीं, प्रधानमंत्री ने यह भी बताया कि साढ़े सात लाख वाहनों की बिक्री वर्ष 2017 में हुई थी, इनमें से दो लाख भी यदि व्यावसायिक काम में लगते हैं तो प्रति गाड़ी दो व्यक्तियों को रोजग़ार मिलता है अर्थात चार लाख रोजग़ार। ऐसा ही तर्क ढाई लाख आटो स्कूटरों के बारे में प्रधानमंत्री ने दिया और बताया कि इस रोजग़ार से भी लगभग साढ़े तीन लाख लोग लाभान्वित हुए। सचमुच इस तरह के आंकड़ों से यदि रोजग़ारों का सृजन हो सकता तो उत्तर प्रदेश के पुलिस विभाग में चपरासी बनने के लिए कुल बासठ पदों के लिए लगभग एक लाख पढ़े-लिखे युवा अर्जी नहीं देते। पीएच.डी करने वालों, स्नातकों और स्नातकोत्तरों, चार्टर्ड एकाउंटेंटों द्वारा की जाने वाली यह शर्मनाक रोजग़ार-तलाश स्थिति की भयावहता को ही उजागर करती है। हाल ही में एक इंटरव्यू में उन्होंने एक सवाल के जवाब में कहा कि पिछले चार सालों में, यानी वर्तमान सरकार के कार्यकाल में, बारह करोड़ मुद्रा ऋण दिये गये हैं। यदि एक ऋण से एक व्यक्ति को भी रोजग़ार मिलता है तो इन चार सालों में बारह करोड़ लोगों को रोजग़ार मिला। लेकिन क्या सचमुच ऐसा हुआ है इन चार सालों में बैंकों ने मुद्रा ऋणों के रूप में कुल 632383 करोड़ बांटे हैं। ऋण प्राप्त करने वालों की संख्या है लगभग सवा तेरह करोड़। इसका अर्थ हुआ औसतन हर ऋण लेने वालों को लगभग 42 हज़ार रुपये मिले। क्या प्रधानमंत्रीजी से यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि 42 हज़ार रुपये में कौन-सा रोजग़ार शुरू किया जा सकता है या चलाया जा सकता है। इतने से पैसों में या तो पकौड़े बेचे जा सकते हैं या फिर साइकिलों, मोटर साइकिलों आदि की मरम्मत के ज़रूरी उपकरण खरीदे जा सकते हैं। फिर भी, यदि यह मान भी लिया जाये कि इन मुद्रा ऋणों को पाने वाले व्यक्तियों को रोजग़ार मिल गया तो इस हिसाब से तीन सालों में बारह करोड़ से अधिक लोग रोजग़ार पा गये। तब तो बेरोजग़ारी खत्म हो जानी चाहिए। तो फिर रोजग़ार दफ्तरों में दर्ज सवा चार करोड़ से अधिक बेरोजग़ार कहां से आ गये उत्तर प्रदेश में चपरासी के 62 पदों के लिए लगभग एक लाख आवेदनकर्ता कौन हैं  इस सवालों का जवाब यही है कि सरकारी आंकड़े और सरकारी बयान विश्वसनीय नहीं हैं। किसी भी सरकार के लिए यह स्थिति अच्छी नहीं है। जनतंत्र में जनता का विश्वास ही सरकार की असली ताकत होता है। यह विश्वास बना रहे, इसके लिए ज़रूरी है कि सरकार के काम में, सरकार के दावों और वादों में ईमानदारी और पारदर्शिता झलके। देश की आधी आबादी युवा है। ये युवा हमारी ताकत हैं। इस ताकत का सही उपयोग तभी हो सकता है जब हम इन युवा हाथों को रोजग़ार दें। ऐसा रोजग़ार जो रोटी, कपड़ा और मकान की इनकी ज़रूरतों को तो पूरा करे ही, इन्हें अपने आप पर भरोसा करने का आधार भी दे। आंकड़ों के जाल और लच्छेदार बातों से बात नहीं बनेगी। बात बनेगी ईमानदार प्रयासों से। यह दुर्भाग्य की बात है कि हमारी राजनीति से यह ईमानदारी दूर होती जा रही है पर यह दुर्भाग्य हमारी नियति नहीं है।

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